सुलभ इंटरनेशनल के फाउंडर डॉ बिंदेश्वर पाठक

सुलभ इंटरनेशनल के फाउंडर डॉ बिंदेश्वर पाठक

डॉक्टर बिंदेश्वर पाठक वो शख्सियत हैं जिनकी स्वच्छता की सोच ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में एक मिसाल कायम कर दी। करीब पांच दशक पहले उन्होंने एक ऐसा अभियान शुरू किया जो एक विशाल आंदोलन बन गया। स्वच्छ भारत अभियान के करीब तीन दशक पहले उन्होंने खुले में शौच, दूसरों से शौचालय साफ करवाने और प्रदूषण जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों या और कमियों पर रोक लगाने का जनांदोलन खड़ा कर पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया। समाज में सुधार आया और उनकी संस्था सुलभ इंटरनैशनल ने साफ-सफाई का एक मॉडल बनाया जिसने न सिर्फ स्वच्छता के क्षेत्र में, बल्कि रोजगार और आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में भी कामयाबी के झंडे गाड़े।  

बिहार के वैशाली जिले के रामनगर ग्राम में 2 अप्रैल 1943 को एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे बिंदेश्वर पाठक बचपन से ही कुछ अलग करने की सोच रखते थे। वे छोटी उम्र से ही बेहद संवेदनशील और सामाजिक कमियों के प्रति सजग थे और जातिवादी मानसिकता में बदलाव के प्रखर पक्षधर थे। जब उन्होंने वर्ष 1964 में पटना यूनिवर्सिटी से समाज शास्त्र में स्नातक कर लिया तो कुछ ही वर्षों बाद उन्हें 1968-69 में बिहार सरकार के गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति के भंगी मुक्ति विभाग में नौकरी करने का मौका मिला। उनकी कार्यकुशलता और वैज्ञानिक सोच को परखते हुए समिति के अधिकारियों ने उन्हें एक अलग ही कार्य सौंपा। अधिकारी चाहते थे कि दलितों को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए सुरक्षित और सस्ती शौचालय तकनीक विकसित की जा सके। पाठक ने तभी इसपर कार्य शुरू कर दिया, लेकिन बाद में उन्होंने देखा कि सरकारी व्यवस्था में कोई भी निर्णय लेने और उसपर अमल करने में बहुत समय लगता है तो उन्होंने खुद ही कुछ करने की ठानी।

बिंदेश्वर पाठक ने वर्ष 1974 में 'पे एंड यूज' टॉयलेट की शुरुआत की। जल्दी ही उनका ये कॉन्सेप्ट पूरे देश और कई पड़ोसी देशों में लोकप्रिय हो गया। उन्होंने अपनी संस्था का नाम रखा 'सुलभ इंटरनैशनल'। सस्ती शौचालय तकनीक विकसित करके उन्होंने सफाई के क्षेत्र में जुटे दलितों के सम्मान के लिए कार्य किया। इससे उनके  व्यक्तित्व में बड़ा बदलाव आया। 1980 में जब उन्होंने  सुलभ इंटरनेशनल का नाम सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन किया तो इसका नाम पूरी दुनिया में पहुंच गया। 

स्वच्छता के साथ विदेश्वर पाठक ने दलित बच्चों की शिक्षा के लिए पटना, दिल्ली और दूसरी कई जगहों पर स्कूल खोले जिससे स्कैवेंजिंग और निरक्षरता के उन्मूलन में सहायता मिली। समाज के निचले पायदान को लाभान्वित करने के मकसद से उन्होंने महिलाओं और बच्चों को आर्थिक अवसर प्रदान करने के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना की है। सुलभ को अन्तर्राष्ट्रीय गौरव उस समय प्राप्त हुआ जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा सुलभ इंटरनेशनल को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया। उधर संस्थान बुलंदियों पर था और इस दौरान उनकी पढ़ाई भी जारी रही। उन्होंने 1980 में पोस्ट ग्रेजुएशन और 1985 में पटना यूनिवर्सिटी से पीएचडी की।  उन्हें 1991 में पद्म भूषण पुरस्कार से नवाजा गया।

77 साल के डॉ. बिंदेश्वर पाठक भारत में मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ देश में स्वच्छता अभियान में अहम भूमिका निभा रहे हैं। उनका मानमा है कि सरकार ने देश में 2019 तक खुले में शौच की परंपरा खत्म करने का जो डेड लाइन रखा था उसमें काफी हद तक सफलता मिली है लेकिन  चुनौतियां अब भी मौजूद हैं। महज  राज्य और कॉर्पोरेट घरानों के तालमेल से यह मुमकिन नहीं होगा। जैसा कि प्रधानमंत्री ने संकेत दिये हैं, इसमें सक्रिय लोगों की भागीदारी और सुनियोजित योजनाओं की जरूरत है। उनका कहना है कि स्वच्छता को राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ आगे जारी रखने  की जररूत है। आने वाले दिनों  में इस आंदोलन को बढ़ाने के लिए  जरूरी पूंजी और 50,000 प्रशिक्षित एक्टिविस्ट के साथ मिलकर इसे प्रभावी बनाया जा सकता है।

डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने एक सामाजिक कुप्रथा में बदलाव लाकर इसे विकास का जरिया बना दिया। उन्होंने सुलभ शौचालयों से बिना दुर्गंध वाली बायोगैस की खोज की। इस तकनीक का इस्तेमाल  भारत समेत अनेक विकासशील राष्ट्रों में धड़ल्ले से हो रहा है। सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में इस्तेमाल के लिए उन्होंने प्रोत्साहित किया।  उनको एनर्जी ग्लोब, इंदिरा गांधी, स्टॉकहोम वॉटर जैसे तमाम पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। 2009 में इंटरनेशनल अक्षय ऊर्जा संगठन (आईआरईओ) का अक्षय उर्जा पुरस्कार भी मिला है। फेम इंडिया मैगजीन-एशिया पोस्ट सर्वे के 50 प्रभावशाली व्यक्ति 2020 की सूची में वें स्थान पर हैं।